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शीर्षक से किसी की भावनाएं आहत होने पर मैं क्षमाप्रार्थी हो सकता था यदि इसमें सच्चाई न होती या यह सामयिक ना होता ।हमारे भारतीय संविधान की प्रस्तावना जिसे सोद्देश्य ‘उद्देश्यिका’ भी कहा जाता है में साफ़ तौर कहा गया है की हम भारत के लोग भारत को एक समाजवादी , पंथनिरपेक्ष , लोकतान्त्रिक और प्रभुत्वसंपन्न गणराज्य,,,,,,,,,,,,.।
हमारे संविधान निर्माताओं का यह एक महत्वपूर्ण स्वप्न और उद्देश्य रहा था की भारत एक वर्गहीन , जातिहीन और समाजवादी राज्य बने परन्तु स्वतंत्रता के छह दशक पश्चात भी हम इन सब बुराइयों की कीचड़ की दलदल में आज भी फंसे हुए हैं। और इस अन्धता का कारण निवारण जानने समझने के बजाय हम पीढ़ी दर पीढ़ी इन्हें और विकृतियों के साथ मजबूती देते जा रहे हैं।
हम एक इसे राष्ट्र में रहते हैं जहाँ संविधान सर्वोच्च है और संविधान हमें एक समतापूर्ण राष्ट्र के लिए आदेशित करता है। लेकिन आज कई विचित्र आग्रह नजर आ रहे हैं।
आज जाति पर आधारित समाजों की -संघों की स्थापना और महिमा मंडन का एक घिनौना दौर सा चल निकला है। जातिगत अस्मिता , जातिगत सम्मान , जातिगत गौरव , जातिगत हित और ना जाने कितने असंवैधानिक तर्कों के जरिये बड़ी बेशर्मी से आयोजन , सभायें , जुलूस आदि निकाले जाते हैं। घोर संकीर्णता का परिचय देते हुए ऐसे आयोजनों में समाज को समरसता का पाठ पढ़ाकर लोक कल्याण करने वाली महान विभूतियों को भी संकीर्ण विचारों में बांधने का प्रयत्न किया जाता है। क्या कोई मुझे इन क्षुद्र समाजों , महासभाओं आदि का एक संवैधानिक राज्य में औचित्य समझ सकता है।
ऐसे समाज , महासभाएं सिर्फ समाज को तोड़ने का ही कार्य करती हैं और इनको प्रश्रय देते हैं चतुर राजनेता जो नहीं चाहते की जनता सौहार्दपूर्ण हो , तार्किक हो। आज ऐसा वातावरण निर्मित कर दिया गया है की जनता स्वयं ही इन घटक बुराइयों से मुक्त होने के बारे में नहीं सोच पा रही है। हमें स्वंतत्रता तो मिली है परन्तु हम अपनी जनता को जागरूक नहीं कर पाए। स्वंतत्रता का अर्थ और उसका सही उपयोग नेहं समझा पाए। दासता का अर्थ केवल अंग्रेजों से दासता ही मान लिया गया और रुढियों से मुक्त कराने के प्रयास आगे नहीं बढ़ पाए क्योंकि क्षुद्र जातीय श्रेष्ठता की गन्दी सोच और क्रूर सामंतीय दंभ ने नयी नवेली लोकतान्त्रिक राजनीती को अपना मोहरा बना लिया।
हमारा समाज किस हद तक दूषित और असमंजस में दिखता है की अब किसी भी क्षेत्र में सुधार की पहल तो दूर गलत का विरोध तक नहीं हो पा रहा है। जातिगत राजनीती , साम्प्रदायिकता , स्त्री शोषण , सम्मान के लिए हत्याएं , अनाचार सब कुछ बढ़ता ही जा रहा है परन्तु सामाजिक प्रयास नदारद हैं। कुछ घोर सामाजिक उपेक्षाएं ये हैं —
<>सरकारी विद्यालयों में पढ़ाई नहीं होती है इसकी शिकायत सभी करते हैं परन्तु इसे सुधारने के लिए समाज से कोई आगे क्यों आता ??जबकि इसका सबसे सरलतम समाधान है की समाज के वरिष्ठ लोग विद्यालय जाकर सहयोग और समाधान प्रदान करेन।
<>गलियों , नालियों में सफायी नहीं होती तो स्थानीय लोग चुप क्यों रहते हैं या स्थिति अधिक खराब होने या किसी दुर्घटना की प्रतीक्षा क्यों करते हैं??साफ़ सफायी पर नियमित ध्यान क्यों नहीं देते, किसी नेता की रैली , क्रिकेट मैच , यहाँ तक की निरर्थक वार्तालाप तकों में अपना समय नष्ट करने वाले लोग साफ़ सफायी के लिए आन्दोलन , सभाएं , धरने क्यों नहीं करते हैं।
<>आरक्षण , भत्ता , धर्म , जाति जैसे विभाजक तत्वों के लिए धरना , प्रदर्शन , हंगामा करने वाले लोग भ्रष्टाचार , अपराध आदि के चक्का जाम क्यों नहीं करते हैं।
निश्चय ही समस्याएं बहुत हैं और यदि हम सिर्फ समस्याएं गिनने बैठें तो यह भी समय का अपव्यय होगा। मुक्य समस्या तो हम स्वयं ही हैं जो बदलना ही नहीं चाहते हैं। अपनी तंग रुढियों को अपनी संस्कृति मानने की भूल कर रहे हैं। तर्क के स्थान पर अंधविश्वासों में डूबे जा रहे हैं। हमें इन सबसे मुक्ति पानी होगी। समाज से जातिगत श्रेष्ठता की संकीर्णता समाप्त होनी चाहिए और ये किसी और के मिटाने से नहीं मिटेगी , इस तरह के लोग स्वयं अपनी इस धरना का परित्याग करें यद्यपि यह आसान नहीं है क्योंकि हम भारतीय तो दिखावा और धौंस को ही अपनी संस्कृति और धर्म मान चुके हैं।दूसरी बात युवाओं को अंधी धार्मिक आस्था से बचना ही होगा। धार्मिक मामलों और आयोजनों में अति भावनाओं का निरर्थक और अनुत्पादक प्रदर्शन करने से बचना होगा। लोगों को अपने जीवन मूल्य और जीवन स्तर स्वयं ही उठाना होगा वह भी बिना किसी राजनितिक लालसा के।
कुल मिला कर अब हमारे समाज में समस्यायों को टालने वाली मानसिकता के बजाय जूझने वाली मानसिकता के लिए प्रयास होने चाहिए और सब हम अपने संस्कारों में उद्यमिता , सक्रियता और बंधुत्व का तडका लगा कर सकते हैं और करना ही होगा। इसके लिए हमें बड़ी ही साफगोई से यह स्वीकारना ही होगा कि अभी तक के दिए जाने वाले हमारे संस्कार त्रुटिपूर्ण रहे हैं जो संविधान प्रदत्त मानवीय समता और गरिमा के अनुकूल नहीं रहें हैं। अतः एक प्रकार से संवैधानिक साक्षरता की भी अति आवश्यकता है।
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